सरसों (राया) उत्पादन की समग्र सिफारिशें 

सरसों भारत की प्रमुख तिलहनी फसलों में से एक है, जिसकी खेती रबी मौसम में व्यापक रूप से की जाती है। यह फसल ठंडे और शुष्क जलवायु में अच्छी उपज देती है और मुख्यतः राजस्थान, हरियाणा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और पंजाब में उगाई जाती है। सरसों की खेती के लिए हल्की से मध्यम दोमट मिट्टी उपयुक्त मानी जाती है। सरसों की बुवाई सितंबर के अंत से अक्टूबर के अंतिम सप्ताह तक करनी चाहिए। समय पर बुवाई, उन्नत किस्मों का चयन, बीज उपचार, संतुलित खाद प्रबंधन और उचित सिंचाई सरसों की अच्छी पैदावार के लिए आवश्यक हैं। इसके प्रमुख रोग जैसे आल्टरनेरिया ब्लाइट, सफेद रतुआ और डाऊनी मिल्ड्यू की रोकथाम के लिए समय-समय पर फफूंदनाशकों का छिड़काव जरूरी होता है। जब फलियां पीली पड़ने लगें और बीज कठोर हो जाएं, तब फसल की कटाई करनी चाहिए। उचित देखभाल और वैज्ञानिक तरीकों से सरसों की खेती किसानों के लिए लाभकारी सिद्ध हो सकती है।

सरसों (राया) उत्पादन की समग्र सिफारिशें 

भूमि व खेत की तैयारीः हल्की दोमट मिट्टी राया/सरसों की खेती के लिए सबसे अच्छी होती है। खेत को 2-3 बार जुताई करके सुहागा लगाकर तैयार करें। असिंचित क्षेत्रों में खेत में नमी का विशेष ध्यान रखें। 

बिजाई का समयः सरसों की बिजाई 30 सिंतबर से अक्टूबर के अन्तिम सप्ताह तक करनी चाहिए। ज्यादा अगेती बिजाई करने पर अधिक तापमान की वजह से धोलिया नामक कीट फसल को नुकसान पहुंचा सकता है। 

बीज की मात्राः उच्च गुणवत्ता वाला 1.25 से 1.50 कि.ग्रा. बीज प्रति एकड़ पर्याप्त है। बीमारियों की रोकथाम के लिए उपचारित बीज ही प्रयोग करें। 

बिजाई का तरीका: बिजाई छिड़‌काव विधि से न करके लाईनों में करें। लाईन से लाईन का फासला 45 सें.मी. व पौधे से पौधे की दूरी 15 सें.मी. रखें। बीज 4-5 से.मी. से ज्यादा गहरा नहीं बोना चाहिए। बिजाई के तीन सप्ताह बाद फालतू पौधों को निकाल देना चाहिए। बिजाई से पहले बीज को एक पैकेट एजोटीका तथा एक पैकेट फॉस्फोटीका से उपचारित करें। 

उर्वरकः अंसिचित (बारानी) क्षेत्रों में 35 कि.ग्रा. यूरिया और 50 कि.ग्रा. सिंगल सुपर फॉस्फेट प्रति एकड़ बिजाई के समय दें। सिंचित क्षेत्रों में 75 कि.ग्रा. सिंगल सुपर फॉस्फेट, 35 कि.ग्रा. यूरिया, 13 कि.ग्रा. म्यूरेट ऑफ पोटाश व 10 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट बिजाई के समय ड्रिल करना चाहिए। 35 कि.ग्रा. यूरिया प्रति एकड़ की दर से पहली सिंचाई के बाद दें। डी.ए.पी. की अपेक्षा सिंगल सुपर फॉस्फेट प्रयोग करना चाहिए। क्योंकि इसमें 12 प्रतिशत सल्फर होती है जो तिलहनी फसलों के लिए बहुत ही फायदेमंद है। यदि डी.ए.पी प्रयोग करनी है तो आखिरी जुताई से पहले 100 कि.ग्रा. जिप्सम प्रति एकड़ बिखेर दें। अन्यथा 500 ग्रा. सल्फैक्स का प्रति एकड़ के हिसाब से बिजाई के 35-45 दिन बाद 100-125 लीटर पानी के साथ छिड़काव करें। अगर किसी वजह से बिजाई के समय जिंक की मात्रा नहीं दी गई हो तो खड़ी फसल में कमी के लक्षण दिखाई देने पर 500 ग्राम जिंक सल्फेट और 2.5 कि.ग्रा. यूरिया का 100 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़कें। 

सिंचाईः सरसों में पहली सिंचाई फूल आने के समय तथा दूसरी सिंचाई फलियां बनने के समय अवश्य दे। पाला पड़ने की सम्भावना हो तो हल्की सिंचाई करें। 

मरगोजा खरपतवार का नियंत्रणः मरगोजा (ओरोबैंकी) की रोकथाम के लिए राऊंडअप या ग्लाईसेल (ग्लाईफोसेट 41 प्रतिशत एस. एल.) की 25 मि.ली. मात्रा प्रति एकड़ बिजाई के 25-30 दिन बाद 150 लीटर पानी में मिलाकर पहला स्प्रे करें तथा दूसरा छिड़‌काव 50 मि.ली. को 150 लीटर पानी में बिजाई के 50 दिन बाद करें। ध्यान रखें कि छिड़‌काव के समय जमीन में नमी का होना जरूरी है। छिड़‌काव से 1-2 दिन पहलें या 1-2 दिन बाद सिंचाई अवश्य करें। छिड़काव फ्लैट फैन नोजल से सरसों की फसल पर करें। फसल में दोबारा या ज्यादा मात्रा में छिड़‌काव न करें। दवाई की ज्यादा मात्रा होने पर फसल में नुकसान हो सकता है। फूल आने पर छिड़काव न करें। सुबह के समय पत्तों पर ओस की अवस्था में छिड़‌काव न करें। 

 

हानिकारक कीड़ेः

चेपा, तेला व सुरंग बनाने वाली सुण्डी की रोकथाम के लिए 400 मि.ली. डाईमेथोएट (रोगोर) 30 ई.सी. या 70 मि.ली. इमिडाक्लोपरिड (कोन्फीडोर) प्रति एकड़ 150-200 लीटर पानी में मिलाकर 15-20 दिन के अन्तराल पर दो छिड़‌काव करें। 

बालों वाली सुण्डी व सरसों की आरा मक्खी के नियंत्रण के लिए क्विनलफॉस (एकालक्स) 25 ई.सी. 500 मि.ली. या 250 मि.ली. मोनोक्रोटोफॉस (मोनोसिल) 36 एस. एल. प्रति एकड़ को 200-250 लीटर पानी में मिलाकर छिड़‌काव करें। 

चितकबरा कीड़े (Painted Bug) या धोलिया नामक कीट की रोकथाम के लिए 200 मि.ली. मैलाथियान (सायथियान) 50 ई.सी. को 200 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ छिड़‌काव करें। इसकी रोकथाम के लिए सरसों की ज्यादा अगेती बिजाईन करें। 

 

बीमारियाँः 

आल्टरनेरिया ब्लाईटः पत्तों व तनों पर गोल भूरे रंग के धब्बे बन जाते है जो बाद में काले रंग के हो जाते हैं तथा इनमें गोल छल्ले से नजर आते हैं। 

डाऊनी मिल्ड्यूः पत्तियों की निचली सतह पर बैंगनी भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं तथा धब्बों का ऊपरी भाग पीला पड़ जाता है। 

सफेद रतुआ (White Rust): पौधों की पत्तियों की निचली तरफ व तने पर सफेद रंग के कील से बन जाते हैं। बीमारी बढ़ने की अवस्था में तने व फूल बेढंगे आकार के हो जाते हैं। यह रोग पछेती बिजाई वाली फसल में ज्यादा होता है। 

उपरोक्त सभी बीमारियों की रोकथाम के लिए मैंकोजेब (डाईथेन एम-45 या इंडोफिल एम-45) 600 ग्रा. प्रति एकड़ को 200 लीटर पानी में मिलाकर 15 दिन के अन्तर पर दो छिड़‌काव करें। 

तना गलनः इस बीमारी के प्रकोप से पौधा जमीन की सतह के पास से या उपर से फलियों बनने के समय टूट जाते है तथा पैदावार घट जाती है। इसकी रोकथाम के लिए बिजाई से पहले बीज को 2 ग्रा. कार्बेन्डाजिम (बावस्टिन) प्रति कि.ग्रा. बीज को सूखा उपचारित करें। बिजाई के 45-50 दिन तथा 65-70 दिन बाद 200 ग्राम बावस्टिन प्रति एकड़ की दर से 200 लीटर पानी में दो छिड़‌काव करें। 

 

विशेष निर्देश: 

1) अच्छी जमाव शक्ति के लिए एक किलोग्राम बीज को 30 मिनट तक 250 मि.ली. पानी (उतना ही पानी डालें कि बीज उसे सोख ले) में मिगोकर छाया में हल्का सुखने (फरफरा) के बाद बिजाई करें। 

 

2) अगर ग्वार के खेत में इमेजेथापायर (Imazethapyr) खरपतवारनाशक डाला गया है तो वहां पर सरसो के बीज का जमाव नहीं होता। ऐसा भी देखा गया है, कमी-कमी जमाव तो हो जाता है परन्तु जब पौधे 4 से 6 इंच के हो जाते है तो पौधे की बदद्वार रूक जाती है।

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